21 परमवीर चक्र विजेताओं के नाम पर 21 सबसे बड़े अनाम द्वीपों का नामकरण

दिल्ली, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए 21 परमवीर चक्र विजेताओं के नाम पर 21 सबसे बड़े अनाम द्वीपों का नामकरण किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि आज के इस दिन को आजादी के अमृत काल के एक महत्वपूर्ण अध्याय के रूप में आने वाली पीढ़ियां याद करेंगी। हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए ये द्वीप एक चिरंतर प्रेरणा का स्थल बनेंगे। मैं सभी को इसके लिए बहुत बहुत बधाई देता हूं । प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि अंडमान की धरती पर ही सबसे पहले तिरंगा लहराया गया था। आजाद भारत की पहली सरकार यहीं बनी थी। आज नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्मदिवस भी है। इस दिन को हम पराक्रम दिवस के तौर पर मना रहे हैं। इन 21 द्वीपों के नाम परमवीर चक्र विजेताओं के नाम पर……1.INAN 198- नायक जदुनाथ सिंह (भारत-पाक युद्ध 1947)

2.INAN 474- मेजर राम राघोबा राणे (भारत-पाक युद्ध 1947)

3.INAN 308- ऑनरेरी कैप्टन करम सिंह (भारत-पाक युद्ध 1947)

4.INAN 370- मेजर सोमनाथ शर्मा (भारत-पाक युद्ध 1947)

5.INAN 414- सूबेदार जोगिंदर सिंह (भारत-चीन युद्ध 1962)

6.INAN 646- लेफ्टिनेंट कर्नल धन सिंह थापा (भारत-चीन युद्ध 1962)

7.INAN 419- कैप्टन गुरबचन सिंह (भारत-चीन युद्ध 1962)

8.INAN 374- कम्पनी हवलदार मेजर पीरू सिंह (भारत-पाक युद्ध 1947)

9.INAN 376- लांस नायक अलबर्ट एक्का (भारत-पाक युद्ध 1971)

10.INAN 565- लेफ्टिनेंट कर्नल अर्देशिर तारापोर (भारत-चीन युद्ध 1962)

11.INAN 571- हवलदार अब्दुल हमीद (भारत-पाक युद्ध 1965)

12.INAN 255- मेजर शैतान सिंह (भारत-चीन युद्ध 1962)

13.INAN 421- मेजर रामास्वामी परमेश्वरन (श्रीलंका में भारतीय शांति सेना के शहीद 1987)

14.INAN 377- फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों (भारत-पाक युद्ध 1971)

15.INAN 297- सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल (भारत-पाक युद्ध 1971)

16.INAN 287- मेजर होशियार सिंह (भारत-पाक युद्ध 1971)

17.INAN 306- कैप्टन मनोज पांडेय (कारगिल युद्ध 1999)

18.INAN 417- कैप्टन विक्रम बत्रा (कारगिल युद्ध 1999)

19.INAN 293- नायक सूबेदार बाना सिंह (सियाचिन में पाकिस्तान से पोस्ट छीनी 1987)

20.INAN 193- कैप्टन योगेंद्र सिंह यादव (कारगिल युद्ध 1999)

21.INAN 536- सूबेदार मेजर संजय कुमार (कारगिल युद्ध 1999)


परमवीर चक्र से सम्मानित सूबेदार मेजर योगेंद्र सिंह यादव की जुबानी-

साल 1999 जिसे पूरे देश में कारगिल युद्ध के लिए जाना जाता है। इस युद्ध में कई वीरो ने प्राण न्यौछावर किए तो कईयों ने अपनी जान की परवाह किए बगैर साथियों की जान बचाने के लिए भारत मां के चरणों में कुर्बानी दे दी । ऐसे ही एक वीर, कारगिल की दुर्गम चोटियों पर दुश्मनों से लोहा ले रहा था जिसका नाम सदियों तक याद किया जाता रहेगा। जिसका 15 दिन पहले ही विवाह हुआ था। उम्र सिर्फ 19 साल। सरहद पर युद्ध की रणभेरी बज चुकी थी युद्धभूमि कारगिल मे सज चुकी थी और युद्ध के लिए रणबांकुरों को पुकार रही थी, इसी युद्ध में शामिल होने के लिए ग्रेनेडियर योगेंद्र यादव को भी आदेश हुआ। ग्रेनेडियर योगेंद्र यादव भी नई नवेली जीवनसंगिनी को छोड़कर सरहद के लिए रवाना हो चले।
जम्मू ट्रांजिट कैंप में पहुंचकर पता चला कि इनकी बटालियन द्रास सेक्टर में पहुंच चुकी है। जल्दी से योगेंद्र यादव अपनी बटालियन 18 ग्रेनेडियर्स में शामिल हो गए। इनकी बटालियन ने तोलोलिंग पहाड़ी के ऊपर द्रास सेक्टर में जो सैकेंड ग्लेशियर के नाम से जाना जाता है। वहां 22 दिन तक लड़ाई लड़ी जिसमे दो ऑफिसर, दो जूनियर कमीशन ऑफिसर और 21 जवानों ने शहादत दी ,तब जाकर 12 जून 1999 को पहली सफलता के रूप में तोलोलिंग पहाड़ी पर विजय प्राप्त की। इसके बाद द्रास सेक्टर की सबसे ऊंची चोटी टाइगर हिल्स को कैप्चर करने का आदेश मिला इसके लिए एक कमांडो टुकड़ी का निर्माण किया गया। टुकड़ी में योगेंद्र यादव को उनकी 22 दिन की तोलोलिंग की लड़ाई के अंदर बनी पहचान की वजह से शामिल किया गया और उन्हें नंबर वन स्क्वायड नियुक्त किया गया।
इसके बाद बटालियन कमांडर कर्नल कुशाल ठाकुर ,योगेंद्र सिंह यादव, लेफ्टिनेंट बलवान सिंह, हवलदार मदन व सिपाही अनंतराम ने सबसे कठिन टाइगर हिल्स को दुश्मन से खाली कराने के लिए 2 जुलाई 1999 को मोर्चा संभाल लिया। 16500 फीट ऊंची टाइगर हिल्स पर पाकिस्तान के सैनिकों ने कब्जा कर रखा था। योगेंद्र सिंह यादव ने अपनी टीम के साथ टाइगर हिल्स पर चढ़ाई शुरू की, पहाड़ की सीधी चढ़ाई, बर्फीली चट्टाने, नुकीले पत्थरों में रस्सियों के सहारे योगेंद्र सिंह यादव ने 16400 फीट तक का सफर तो तय कर लिया, मंजिल महज 60 फीट शेष थी तभी दुश्मन ने ऊपर से फायरिंग शुरू कर दी। फायरिंग में 3 सैनिक शहीद हो चुके थे खुद योगेंद्र सिंह यादव को 3 गोलियां बाजू व जांघ में लग चुकी थी। एक ग्रेनेड से योगेंद्र सिंह यादव का घुटना जख्मी हो गया और दूसरे ग्रेनेड के टुकड़े से नाक और मुंह का हिस्सा कट गया, जिससे नज़र आना बंद हो गया। फिर भी देश के इस वीर सपूत ने हिम्मत नहीं हारी, शरीर खून से लथपथ था। गोली लगने के कारण योगेंद्र सिंह का बांया हाथ निष्क्रिय हो चुका था, फिर भी खून से लथपथ योगेंद्र यादव ने बेल्ट से बाएं हाथ को बांधकर कोहनी के बल पर सरकते हुए दुश्मन के बंकर तक पहुंचे और ग्रेनेड फेंककर दुश्मन का बंकर तबाह कर दिया। योगेंद्र सिंह यादव यहीं नहीं रुके उन्होंने दूसरे बंकर पर भी अंधाधुंध फायरिंग कर कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।योगेंद्र सिंह यादव को 6 गोलियां लग चुकी की, तभी एक पाकिस्तानी सैनिक ने उनके सीने पर गोली मारी। परंतु उनकी ऊपर वाली पॉकेट में एक पर्स रखा हुआ था और उस पर्स में 5-5 रुपए के सिक्के थे गोली सिक्कों पर लगी और कुछ देर के लिए योगेंद्र यादव को लगा कि वह मर चुके हैं परंतु कुछ मिनट बाद पाकिस्तानी सैनिक उनकी ए के-47 उठा कर चलने लगा और वह योगेंद्र सिंह यादव के पैर से टकराया तो उन्हें झटका लगा और उन्हें महसूस हुआ कि मैं जिंदा हूं। योगेंद्र सिंह यादव के पास एक हैंडग्रेनेड रखा था ।उन्होंने उस की पिन निकाल कर पाकिस्तानी सैनिक की जैकेट के हुड में डाल दिया और कुछ दूर जाने पर वह फट गया जिससे उस पाकिस्तानी सैनिक का सिर उड़ गया। योगेंद्र सिंह यादव का शरीर लगभग साथ छोड़ चुका था। वह बुरी तरह घायल हालत में मातृभूमि की गोद में थे। तब उन्होंने पाकिस्तानी कमांडर का मैसेज सुना कि टाइगर हिल्स के 500 फीट नीचे भारत की चौकी को निशाना बनाया जाने के लिए जा रहे थे, यह सुनते ही योगेंद्र सिंह यादव मरणासन्न होने के बाद भी चौकन्ने हो गए और उसी हालत में अपने साथियों को दुश्मन की प्लानिंग की सूचना देने के लिए चोटी से नीचे सरकना शुरु कर दिया। धीरे-धीरे सरकते हुए अपनी चौकी तक का रास्ता पार कर लिया। चौकी पर पहुंचने के बाद उन्होंने साथियों को दुश्मन के मंसूबों की सूचना देकर वह वहीं गिर पड़े। योगेंद्र सिंह यादव के उस संदेश से कई भारतीय सैनिकों की जान बच गई।उसी 3 /4 जुलाई 1999 रात सूबेदार मेजर योगेंद्र सिंह यादव की टुकड़ी ने बिना किसी नुकसान के टाइगर हिल टॉप पर विजय प्राप्त कर ली और तिरंगा फहरा दिया। उधर योगेंद्र सिंह की हालत को देखकर उनके साथियों ने उन्हें शहीद मान लिया । परंतु कोई चमत्कार ही था जो योगेंद्र सिंह यादव ने दुश्मनों का हौसला पस्त करने के बाद मौत को भी मात दे दी। इस अदम्य साहस के लिए 19 साल के इस वीर को देश के सबसे बड़े पदक परमवीर चक्र से नवाजा गया। वीरगति पाने वाले परमवीरों की कहानी……

भारत-चीन युद्ध के हीरो मेजर शैतान सिंह-

शून्य से कम तापमान में शरीर के भीतर खून जमा देने वाली ठंड और ऊपर से चल रही बर्फीली हवाएं। भारतीय जवानों के पास काम चलाऊ पहनने का सामान। सामने टारगेट कर आगे बढ़ रही दुश्मन की सेना और फिर मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों के पराक्रम की वो कहानी, जिसे सुनकर आज भी हर भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा हो जाता है। 18 नवंबर 1962 को किया हमला-
18 नवंबर 1962 का दिन था। रेजांगला के चुसुल सेक्टर में कुमाऊं रेजिमेंट की 13वीं बटालियन के 120 जवान इस बर्फीली चोटी पर तैनात थे। चार्ली कंपनी की कमान मेजर शैतान सिंह के हाथ में थी। भारत-चीन युद्ध के दौरान ये इकलौता इलाका था, जो भारत के कब्जे में था। LAC पर काफी तनाव था और सर्द मौसम की मार अलग पड़ रही थी। बावजूद इसके भारतीय जवान मुस्तैदी से सीमा की सुरक्षा में खड़े थे।
तभी सुबह करीब साढ़े 3 बजे का वक्त हुआ होगा। सैनिकों ने चीन की तरफ से एक रोशनीनुमा कारवां आते देखा। धीरे-धीरे ये कारवां नजदीक आता चला गया। फायरिंग रेंज में आते ही जवानों ने गोलियां दागनी शुरू कर दी। कुछ देर बाद जब दुश्मन और नजदीक आया तो उसकी चाल का पता चल गया।
दरअसल, चीनी टुकड़ी की पहली कतार में याक और घोड़े थे, जिनके गले में लालटेन लटकी थी। सारी गोलियां उन्हें छलनी कर गई, जबकि चीनी सैनिकों को एक भी गोली नहीं लगी। चीनियों को भारतीय जवानों के पास कम असलहा बारूद होने की बात पहले से पता थी। इसलिए उन्होंने प्लानिंग के तहत अटैक किया, लेकिन दुश्मन को इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि अपनी सरजमीं के लिए कुर्बान होने वाले सैनिकों के जोश और साहस के आगे उन्हें झुकना पड़ेगा।
मेजर का साहस देख डटे रहे जवान-
7 पलटन के एक जवान ने संदेश भेजा कि करीब 400 चीनी उनकी पोस्ट की तरफ आ रहे हैं। इसी दौरान 8 पलटन ने भी मैसेज भेजा कि रिज की तरफ से करीब 800 चीनी सैनिक आ रहे हैं। मेजर शैतान सिंह को ब्रिगेड से आदेश मिल चुका था कि युद्ध करें या चाहें तो चौकी छोड़कर लौट सकते हैं, लेकिन मेजर शैतान सिंह ने पीछे हटने से मना कर दिया।
इसके बाद मेजर ने अपने सैनिकों से कहा अगर कोई वापस जाना चाहता है तो जा सकता है। सारे जवान अपने मेजर के साथ खड़े रहे है। मेजर हर पलटन के पास जाकर एक-एक जवान का हौसला बढ़ा रहे थे। दुश्मन के अटैक करने के बाद भारतीय जवानों ने कम हथियार और गोला बारूद होने के बावजूद उन्हें मुंहतोड़ जवाब दिया।
बर्फ से जमी चोटियों पर सिर्फ खून ही खून नजर आने लगा। चीन के मुकाबले भारतीय सैनिकों की तादाद बहुत कम थी, लेकिन उसके बावजूद मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में जवानों ने चीनियों के हौसले को पस्त कर दिया।
पैर में रस्सी बांध चलाई मशीनगन-
इस युद्ध में मेजर शैतान सिंह की शहादत की कहानी को आज भी गर्व से याद किया जाता है। युद्ध के वक्त मेजर शैतान सिंह का एक हाथ बुरी तरह लहूलुहान हो गया। एक सिपाही ने उनके हाथ में पट्टी बांधी और आराम करने के लिए कहा, लेकिन घायल मेजर ने मशीन गन मंगाई और उसके ट्रिगर को रस्सी से अपने पैर पर बंधवा लिया।
रस्सी की मदद से पैर से फायरिंग शुरू कर दी। तभी एक गोली मेजर के पेट पर लगी। उनका बहुत खून बह गया था और बार-बार उनकी आंखों के सामने अंधेरा छा रहा था। लेकिन जब तक उनके शरीर में खून का एक भी कतरा था, तब तक वो दुश्मन पर फायरिंग करते रहे। इस दौरान सूबेदार रामचंद्र यादव को नीचे बटालियन के पास जाने को कहा ताकि वो उन्हें बता सके कि हम कितनी वीरता से लड़े।
1500 से ज्यादा सैनिक मार गिराए थे-
लेकिन सूबेदार अपने मेजर को चीनियों के चंगुल में नहीं आने देना चाहते थे, इसलिए उन्होंने शैतान सिंह को अपनी पीठ पर बांधा और बर्फ में नीचे की ओर लुढ़क गए। नीचे आकर उन्हें एक पत्थर के सहारे लेटा दिया। कुछ घंटे बाद मेजर शैतान सिंह ने अंतिम सांस ली। कहा जाता है कि उस युद्ध में रेजांगला में चीन के 1500 से ज्यादा सैनिक भारतीय फौज के हाथों मारे गए थे। युद्ध में चीनी सेना को सबसे ज्यादा नुकसान रेजांगला में ही उठाना पड़ा था।

करगिल युद्ध के हीरो कैप्टन विक्रम बत्रा – यह दिल मांगे मोर

विक्रम बत्रा साल 1999 के करगिल युद्ध के दौरान 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में तैनात थे। तब विक्रम के नेतृत्व में टुकड़ी ने हम्प और रॉकी नॉब स्थानों को जीता और इसीलिए उन्हें कैप्टन बना दिया गया था। उन्होंने श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर 5140 पॉइंट को पाक सेना से मुक्त कराया। बेहद मुश्किल रास्ते होने के बाद भी कैप्टन बत्रा ने 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को कब्जे में लिया। कैप्टन बत्रा ने जब रेडियो पर कहा- ‘यह दिल मांगे मोर’ तो पूरे देश में उनका नाम छा गया।
इसके बाद 4875 पॉइंट पर कब्जे का मिशन शुरू हुआ। तब आमने-सामने की लड़ाई में उन्होंने पांच दुश्मन सैनिकों को मार गिराया। गंभीर रूप से जख्मी होने के बाद भी उन्होंने दुश्मन की ओर ग्रेनेड फेंके। इस ऑपरेशन में विक्रम शहीद हो गए, लेकिन भारतीय सेना को मुश्किल हालातों में जीत दिलाई।

करगिल युद्ध के हीरो कैप्‍टन मनोज पांडेय-

मई 1999 की शुरुआत में जब कारगिल सेक्‍टर में घुसपैठ की जानकारी मिली, उस समय कैप्‍टन मनोज की बटालियन स‍ियाचिन में डेढ़ साल का टेन्‍योर पूरा करके लौट रही थी। इसके बाद कैप्टन की बटालियन की तैनाती पुणे में होनी थी, लेकिन कारगिल में घटनाक्रम के बाद बटालियन को बटालिक सेक्‍टर में तैनाती का आदेश दिया गया।
तब कैप्‍टन मनोज की यह सबसे पहली यूनिट थी, जिसे तैनाती का आदेश मिला था। तब यूनिट को कर्नल (रिटायर्ड) ललित रात कमांड कर रहे थे। इस यूनिट को जुबार, कुकरथान और खालुबार इलाकों की जिम्‍मेदारी दी गई। इस बटालियन का हेडक्‍वार्टर येल्‍डोर में था। कैप्‍टन पांडे ने इस हिस्‍से में दुश्‍मन पर हुए कई हमलों का नेतृत्व किया।
कैप्टन मनोट पांडे ने अपनी टुकड़ी को इस तरह लीड़ किया कि उन्होंने दुश्मन को घेर लिया। उन्होंने पहली और दूसरी पोजिशन को पीछे खदेड़ दिया। जब वे तीसरी पोजिशन से दुश्मन को खदेड़ने के लिए आगे बढ़ रहे थे तभी उनके कंधे और पैर में गोलियां लगीं, इसके बाद भी वो गोलीबारी करते रहे। इस हालत में भी उन्होंने खालुबार को जीत लिया था और यहां पर तिरंगा लहरा दिया था। फिर वे शहीद हो गए।

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